March 5, 2015

YOU live ONCE ONLY as a DICE


... eventually you will die and so it will come to an end, and so people would remember you, and this is how you leave a LEGACY behind, there are 'N' number of ways PEOPLE would suggest you how to LEAVE this place, how to call it a LIFE, how to meet 'death' a CERTAIN end!!! 

But ONE does gives it a slip to check that no one or SELDOM someone would suggest or ADVICE you on, how to LIVE? how to LEAD a life? How not to do those something's so that you get to do EVERYTHING else and so forth and so ON... 

Has ANYONE thought of it yet or is it me again shoving it down your throat with a VISUAL spoon, wherein I am ACTUALLY slinging some mud on you and you are ENJOYING the ruckus, so BASICALLY you are doing nothing except sitting on that cursed bottom of yours and sinfully doing nothing except READING, what I am MAKING you go through? And by the way, you are ENJOYING it by NOW... 

Just to be CLEAR that it is not a roast session as this 'ROAST' word has become quite infamous RECENTLY, but this shit piece of writing will DEFINITELY tell you, how YOU live? Not a single bit of how you should live it or LEAD it or do what the WHOLE goddamn, going down the drain WORLD suggests you to do but it will tell you, EXACTLY you are so pathetic that, I have to write it again, this will tell you how you live!!! 

And, DARE you draw any comparisons BETWEEN the title or as they call it the heading/subject/topic under which you are going to spend almost NEXT 2 MINUTES, aah its just that LONG! YES it is, but these 2 MINUTES will tell you how not just you take yourself for GRANTED, but everyone else of those who THINKS they could get you freaking rolling, DARE you IMAGINE yourself as a FROLICKING face who is on this MERRY GO round trip of LIFE... you simply can not have that LUXURY in life!

So, how you live is just plane simple and easy to draw or rather say, easy to blurt out... You live as someone who loves being ROLLED around, expected to come out as 'EXPECTED' but at the CORE you WISH to come out with FLYING COLOURS, as you want, and at times the rolling ones get what they have wished for and REST of the times they don't, but you totally get lost in BETWEEN of this... and even before you come to get a GRIP of what is HAPPENING? You are already on a NEXT roll, waiting to come to meet a CERTAIN end!

PLAN what you WISH to do, plan what you wish to ACHIEVE, plan your SUCCESS, plan your PLEASURES, plan EVERYTHING that you have ever wished for, and you would be amazed to find the roll-outs are in FAVOUR to your wishes, your unheard of WANTS, so irrespective of the face you get rolled on, irrespective of the face that you COME to stop with, you will for sure be ENJOYING the next roll... you would LOVE what we call a LIFE of a dice, and so let no one tell you that you live ONCE only as a dice! 


Let's roll, I am rolling it at you, not only what we CALL dice of YOUR life but a CHOICE of life!!!   

***You could CHOOSE to roll out once AGAIN, DARE not to give it a second READ, you will be HOOKED on to it, but still you get a CHOICE... WANT, THEN GIVE IT A GO!



© T.C.K.



March 4, 2015

पल जो आते हैं, जाते हैं...

पल जो आते हैं, जाते हैं...

तुम फिर सिर्फ क्यों ख्यालों में आते हो?
क्यों सिर्फ रात के उजाले में आते हो?
सुबह होने को है देर बहुत बाकी, 
फिर क्यों कहकहों से मुझे जगाते हो?


तुमने सोचा भी न होगा, है ना?
खुद से बाहर भी, कहीं बस जाओगे तुम...
कहाँ रहते हो तुम?
जो खोये-खोये से सदा रहते हो...


कभी ख्यालों में ही ठहरा के चले से जाते हो,  
फिर कभी चुप से घूम के भी आते हो तुम...
जगाते हो, मुस्काते हो, और फिर चले जाते हो!
और फिर कभी यूँही बस चले भी तो आते हो!


जानोगे किसी रोज, भले ही ना मानो...
तुम्हारे यूँ आने, जाने और फिर चले आने के मध्य...
तुम थोड़ा-थोड़ा करीब ही कहीं रह से जाते हो!
कभी-कभी, कुछ-कुछ किसी पल,
इन पलों में जो आते हैं, जाते हैं, 
तुम मेरे हाँ सिर्फ मेरे ही, मेरे हो से जाते हो!



© टी. सी. के.

February 25, 2015

कहाँ है रे कठोर हो?

कहाँ है रे कठोर हो?

फागुन आय रओ है रे... फुलवारी मा, गगन पे छाय रओ है रे... गुलाल हाँ,
पिया खेलो रहे ठोड़ी में बांधे रुमलवा, चोली होरी बसंती ज्यों धधके अगनवा,



भर डारो पिचकारी पुरो बदनवा हो, मैं तो ठाड़ी तोरो इंंजार मदनवा हो...

...होरी है!!!

कहाँ है रे कान्हा कठोर हो? कहाँ है रे माखनचोर हो? कहाँ है रे कठोर हो?

© टी. सी. के.

*** छायाचित्र गूगल से 

January 12, 2015

लुल्ल का गणित

एक लुल्ल + एक और लुल्ल = एक जोड़ा लुल्ल
एक लुल्ल - एक लुल्ल = बत्ती गुल्ल (*बहुत बड़े लुल्ल हो यार, लुल्ल में कुछ होता ही कहाँ है घटाने को)
एक लुल्ल * एक और लुल्ल = केवल एक ही लुल्ल (देंगे एक चमाट जोर से 'इनफाइनाइट' * 'इनफाइनाइट' का होत है तनिक बताइये तो)

एक लुल्ल / एक लुल्ल = तनिक बुझने में मदद कीजियेगा...



***फुल्टू लुल्ल कर दिए टाइम का, इस लुल्ल सी गणितीय सारिणी के रचैता हैं - हाँ, इसी गोला के प्राणी हैं! 

July 7, 2013

दिल में मेरे है दर्दे-डिस्को... दर्दे-डिस्को, दर्दे-डिस्को...


दिल में मेरे है दर्दे-डिस्को... दर्दे-डिस्को, दर्दे-डिस्को...

नींद भगाने के लिए अलार्म की यह धुन ही काफी है, बाकी 'मलायका' का लहराना नींद को भगाने के लिए अब बहुत बड़ा तोड़ तो नहीं, परन्तु अब तक तो कारगर सिद्ध रहा है। आज तो बहुत पहले ही नींद खुल गयी और शरीर में दर्द रात का सबब कह रहा था... उमस भरी चिप-चिपी रात शरीर को कतई मरोड़ देती है बस... और पौ फटते-फटते आदमी चित्त! 

गुलज़ार के होटल की रोटियाँ चबाने के लिए भी जुगत लगानी पड़ी कल और यह तब जब एक कटोरा भर कर मूंग की दाल मयस्सर थी... समझ नहीं आता, कल काहे इतना खर्च कर दिये रहे, भोज तो था नहीं कोई... पर हाँ मन था, और अब खर्च हो गया तो हो गया!

यहाँ याद आती है, रानी की... उसका दिल लगाकर चूल्हे पर रोटियाँ बना कर गरमा-गर्म खिलाना और फिर प्यार से कहना, खा लो, दिन-रात इतनी हाड़-तोड़ मेहनत जो करते हो... उसका यह कहते-कहते पलकों को छिपाना और कनखी से देखना और फिर बस तुरंत ही एक रोटी की गुज़ारिश और कर, चूल्हे में ठीक तैयार रोटी, दिन में बिलोये मक्खन के साथ थाली में, किसी ना-नुकुर से पहले ही हाज़िर कर देना बस उसके ही बस की बात थी।

दिल करे ना करे डिस्को.. मन तो कर ही रहा होता था। तुम भी कुछ खा लो कहने पर वो कहती थी... खा लेंगे पहले दूध लगा दें चूल्हे पर, मंदा गर्म हो जाएगा रोटी खा चुकने तक। मैं बैठा एकटक उसको ही देखा करता, कोयलों पर दूध और सीने में दिल दोनों ही साथ-साथ तपिश को थामने की कोशिश करते से प्रतीत होते। उसकी आँख से कुछ भी छुपा ना था, तुरंत लोटा हटा देती कोयलों से और राख़ पर रख देती, दूध तो संभल ही गया था! रानी के रोटी खा कर चूल्हा-बर्तन निपटाने में यहीं कुछ समय लगता था और फिर एक आवाज आती थी, आ जाओ सो जाओ, फिर सुबह जल्दी जो उठ जाते हो... देसी गुड की एक डली और तांबे का दो हाथों में ना समाने वाले गिलास में दूध को जज्ब करना बाकी होता था... थोडा तुम भी पी लो कहने पर कहती थी, मैं कौन सा कमजोर हुई जा रही हूँ और फिर ढेर मनौती कर गुजरने पर अंत में थोडा सा दूध पी ही लेती थी, दूध भी कमाल की चीज है, गले से नीचे उतर कर भी उबलने को तैयार और फिर कुछ देर गल-बहियाँ और फिर... और फिर उसका कहना रात काफी हो गयी है, सो जाओ! बस, यही मानो आखिरी बात होती और फिर दोनों ही खर्च सी हो चुकी रात में पूरी आकाशगंगा में एक अकेले तारे को टटोलते से सो जाते...

क्या बात थी उन रातों में, आज मन केवल राग 'मुद्रा' पर नृत्य करता है... चलें अब कुछ समय में हमारे डिस्को का समय हो गया है, दफ्तर से गाड़ी आती ही होगी। और फिर हमारा फ़ोन बजने लगेगा... दिल में मेरे है दर्दे-डिस्को.... दर्दे-डिस्को, दर्दे-डिस्को  

June 20, 2013

और फिर मौन संवाद

कुछ नहीं से कुछ सही, और फिर, कुछ ही क्यों सही? सब कुछ सही क्यों नहीं? 

कुछ नहीं से सब कुछ क्यों नहीं, तक का सफ़र बस कुछ ही पलों में तय हो जाता है! और सामने होती है एक अनंत यात्रा, क्या यह केवल मौन से कट जायेगी? तुम जानती हो, एक पुष्ट संवाद के लिए, एक आत्मीय संवाद का स्थापित होना जरुरी होता है, तर्क और दृष्टिकोण किसी भी संवाद को केवल मेरे या मुझ तक ही सीमित कर देते हैं... तुम्हारे साथ किसी भी संवाद का अंत यदि मौन में हो तो क्या उसे संवाद कहा जाए?

मैं आज भी उसी लम्हे में हूँ जहाँ हमने उस संवाद को छोड़ा था.... ख़ामोशी के साथ, इस धीर से मौन में खोज रहा हूँ, उस ध्वनि प्रारूप को, उस शब्द को जो इस मौन को, इस अनंत ख़ामोशी को चीर कर रख देगा, उस अनहद ध्वनि बिम्ब की प्रतीक्षा में... जो इस चिरकाल के मौन को पुनः: जिवंत करेगा, आत्मीय निवेदन है... कोई नयी धुन छेड़ दो अब... कुछ कहकर इस सुसुप्त हो चुकी यात्रा को पुनर्जागृत कर दो! 


चेतन से अवचेतन हो चुकी इस पथ हीन, कान्तिविहिन, यात्रा में एक यही सोच तो साथ है, कि कहीं तुम हो, प्राण हैं, अभी समय शेष है… तो फिर क्यों रितुम्भरा जल मग्न होकर भी प्यासी है, क्या है जो तृप्त नहीं है, क्या है जो रोकता है, किस आवेग से भयभीत हो… इस अनजाने डर से की कहीं कुछ और मंतव्य तो नहीं। क्या मेरे ह्रदय में किसी भी और मंतव्य के लिए जगह शेष है? बह चलो और पाओगी की अनजाना भय एक कल्पना अतिरेक से अधिक कुछ भी नहीं, इस अनन्त मौन को अनहद की गूंज से छिन्न-भिन्न कर दो। 

उस अवस्था में लौट आना जहाँ कुछ न होकर भी सब कुछ प्रारंभ होता है, जहाँ तृप्ति हर दिशा में समायोजित है, जहाँ केवल एक मत न होकर, एक दृष्टिकोण न होकर भी, सब कुछ एकरस हो, जहाँ संगीत हो और साथ ही अनहद मौन भी, कुछ न होकर भी कुछ हो, तुमको ह्रदय से आमंत्रित करता हूँ और फिर सर्वस्व होगा इस अनहद मौन संवाद मे… 

टी सी के


April 6, 2012

BORN JUST NOW, JUST RIGHT




BORN JUST NOW, JUST RIGHT

I felt a need to quench this thirst,
Holding you close to me as you hug,
Where have you been all this life,
Christen me with your love this moment,
I felt as if I am born just now, just right!

This embrace was something I looked for,
in the womb of mother nature,
waiting for the first breath through your lips,
and here I am standing wide...
I felt as if I am born just now, just right!

I want to breathe on now,
I would attempt to,
I know it would not be the same,
not the same as to breathe through U...
I felt as if I am born just now, just right!

And so are you,
You are loved too...
What could I say to you,
You renewed my faith in loving you...
I would remember this day forever...
I felt as if I am born just now, just right!

BY T.C.K.
6th of April - 2012